गुरुवार, 13 अगस्त 2009

कहो आंधियों से आए, कहो बर्फ से जलाए

एक हादसे में शरीर का तीन-चौथाई हिस्सा निष्क्रिय हो जाने के बावजूद तमिलनाड़ू के आयकुड़ी गांव के एस.रामकृष्णन हजारों अपाहिजों को बना रहे हैं आत्मनिर्भर।

शख्सियत: एस. रामकृष्णन

कामयाबी का मंत्र

कहो आंधियों से आए, कहो बर्फ से जलाए,
ये रहा मेरा नशेमन कोई आंख तो दिखाए।


अपाहिज वे नहीं होते, जो शरीर से लाचार हैं, बल्कि वे होते हैं, जिनमें इच्छा शक्ति का अभाव होता है। इस बात को सही साबित कर दिखाया है, तमिलनाड़ू में आयकुड़ी गांव के एस. रामकृष्णन ने। एक हादसे में रामकृष्णन के गर्दन के नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था। जहां लोग ऐसे हालात में उम्मीद की डोर छोड़ देते हैं, रामकृष्णन ने न केवल जिंदगी को उत्साह और उमंग के साथ जिया बल्कि देश के पोलियोग्रस्त और अपाहिज बच्चों की मदद के लिए भारत का सबसे बड़ा अपाहिज केंद्र 'अमर सेवा संगम बनाकर समाज को हमेशा के लिए ऋणी बना दिया। वे मोहताज नहीं मोहताजों के मसीहा हं। सात बच्चों से शुरू हुए इस केंद्र में पांच हजार से ज्यादा अपाहिज बच्चे अपने पैरों पर खड़ा होने की तालीम ले रहे हैं। 2002 में तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने संगम को 'बेस्ट इंस्टीट्यूशन इन द सर्विस ऑफ द डिसेबल्ड एंड अपलिफ्ट द रूरल पुअर से भी सम्मानित किया।

अपने साथ हुए हादसे और हालात को रामकृष्णन कुछ यूं बयां करते हैं,'बचपन से ही मेरी ख्वाहिश देश और समाज के लिए कुछ करने की थी। पढ़ाई-लिखाई के साथ सामाजिक कार्यो में भी मैं हमेशा आगे रहता। बड़ा हुआ तो पिताजी ने इंजीनियरिंग के लिए कोयंबटूर भेज दिया। मेरे मन में देश के लिए कुछ करने का जुनून सवार था। कॉलेज के चौथे सेमेस्टर के एक दिन मैंने अखबार में नौसेना का विज्ञापन देखा। मैं परीक्षा देने तुरंत बंगलौर जा पहुंचा। लिखित और मौखिक परीक्षा के बाद मेरा शारीरिक परीक्षण था, जिसमें मुझे 20 फीट से एक लकड़ी के तख्त पर भी कूदना था। कूदते वक्त संतुलन बिगड़ा और गर्दन में ऐसा झटका लगा कि फिर दुबारा खड़ा नहीं हो पाया। शायद यहीं से मेरी जिंदगी को पलटी खाना था। मेरे शरीर का अब गर्दन से नीचे का कोई भी अंग काम नहीं कर रहा था। यह देख मेरे और मां के आंसू थम नहीं रहे थे। कई महीनों इलाज चला लेकिन मैं दुबारा उठ न सका। अब मैं पूरी तरह मां पर ही निर्भर होकर रह गया। मां ही मुझे खाना खिलाती, नहलाती। यकीन मानिए मैं जिदंगी से पूरी तरह हताश हो चुका था। एक दिन मुझे निराश देख मां बोली, 'बेटा, यदि भगवान ने इतने बड़े हादसे के बाद भी तुझे बचा रखा है, इसके पीछे भी कोई वजह है। मां के शब्दों ने जैसे मुझमें नई जान फूंक दी। मुझे लगा वाकई ईश्वर मरे जरिए कोई नेक काम करवाना चाहते हैं। उस दिन के बाद से मेरी मानसिकता पूरी तरह बदल गई। मैं व्हील चेयर पर ही गांव के कुछ गरीब बच्चों को घर पर पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे जब बच्चों की तादाद बढऩे लगी तो मां की मदद से मैंने एक नर्सरी स्कूल की नींव रख दी, जिसमें पहले साल में ही 75 बच्चे थे। कई सालों बाद खुद की हालत देखकर मुझे लगा कि समाज में पोलियोग्रस्त या हादसों में विकलांग बच्चों के लिए भी कुछ किया जाना चाहिए। 1981 में मेरी ख्वाहिश परिवार के सहयोग से 'अमर सेवा संगम में बदल गई। इसमें हम पोलियोग्रस्त या अपाहिज बच्चों को निशुल्क शिक्षा, मेडिकल, भोजन, आवास से लेकर उन्हें वोकशनल कोर्सेज भी करवाने लगे। एक बार हमारे काम को देख अंतरराष्ट्रीय तमिल लेखिका शिवशंकरी ने तमिल अखबारों में इस बाबत लेख लिखा। फिर क्या था, हमारे संस्थान की मदद के लिए हजारों हाथ खड़े हो गए। आज हमारे पास 330 गांवों के हजारों अपाहिज बच्चे शिक्षा लेकर मुख्यधारा में जुड़ रहे हैं।

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