गुरुवार, 13 अगस्त 2009

पिता रिक्शा चालक पुत्र कलेक्टर

कभी भी परिस्थितियों को दोष ना दें, विषम परिस्थितियां ही आपको मंजिल तक पहुंचने की प्रेरणा देती हैं।

खास बात यह नहीं है कि गोविंद जायसवाल पहले प्रयास में आईएएस बने हैं, बल्कि यह कि घर के कमजोर माली हालात भी उन्हें उनके मुकाम को हासिल करने से नहीं रोक पाए।



गोविंद जायसवाल

उम्र: 23 साल

सफलता: पहले प्रयास में आईएएस (सामान्य वर्ग) परीक्षा में 48वीं रैंक।

पारिवारिक पृष्ठभूमि: माली हालत कमजोर, पिता रिक्शाचालक।

प्रेरणा: जब पिताजी को बीमारी में भी रिक्शा खींचते देखा।

दिनचर्या पिछले दो साल से :

सुबह 6 बजे उठना।
7 से 12 बजे तक पढऩा।
1 से 5 बजे तक पढऩा।
शाम 6 से 8 बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना।
रात 9 से 1 बजे तक पढऩा।

युवाओं को संदेश

यह खामोश मिजाज जिंदगी
जीने नहीं देगी,
इस दौर में जीना है तो
कोहराम मचा डालो।


इए आपकी मुलाकात ऐसे शख्स से करवाते हैं, जिसके पिता रिक्शाचालक हैं। घर की माली हालत इतनी नाजुक कि पर्याप्त कपड़े भी मयस्सर नहीं। कोचिंग जाने से पहले वह अपनी शर्ट खुद धोता और सूखने पर उसे पहन कर जाता। यह बात कल हुआ करती थी, लेकिन आज दिल्ली की एक छोटी सी 'खोली में रहने वाला गोविंद कलक्टर बन गया है। उसने यह साबित कर दिया कि अगर नाविक के हौसले बुलंद हों तो प्रचंड तूफान भी उसका इरादा नहीं बदल सकते।

वाराणसी के 23 साल के गोविंद जायसवाल वह शख्स हैं, जिन्होंने पहली कोशिश में ही भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में 48 वीं रैंक लाकर युवाओं के सामने शानदार मिसाल कायम की है। गोविंद के परिजनों ने कभी सोचा भी नहीं था कि वह एक दिन कलक्टर बन सकता है। गोविंद के पिता वाराणसी में रिक्शा चलाते हैं और रिक्शा किराए पर भी देते हैं। यही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है।

अभाव मेरी सबसे बड़ी ताकत

गोविंद के मुताबिक, 'अभाव मेरी सबसे बड़ी ताकत रहे है। हर दिन उठकर मैंने गरीबी और अभावों का सामना किया है। हमारी माली हालत शुरू से ही काफी कमजोर रही। मां बचपन में गुजर गईं। बाऊजी (पिता) सारा दिन रिक्शा चलाकर भी ज्यादा कुछ नहीं कमा पाते थे। जैसे-तैसे तीन बहनों की शादी की। मेरी पढ़ाई के लिए पैसा देना बाऊजी के बूते के बाहर था। ऐसे में बाऊजी के पैर में सेप्टिक हो गया और आमदनी का एकमात्र जरिया भी बंद हो गया। बाऊजी ने रिक्शा किराए पर देना शुरू किया। मैं ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली आकर पढऩे लगा। ट्यूशन करके मैं अपना खर्चा निकालता, बाऊजी भी पैसे भेजते रहे। मेरी सफलता में तीनों बहिनों का खासा योगदान रहा। जब कभी टूटने लगता तो वे मां की तरह दुलारतीं, मुझे आगे बढऩे का हौसला देतीं। मेरा मानना है कि कभी भी परिस्थितियों को दोष ना दें, विषम परिस्थितियां ही आपको मंजिल तक पहुंचने की प्रेरणा देती हैं।

बाऊजी बने प्रेरणा

इस मुकाम तक लाने का पूरा श्रेय मैं अपने बाऊजी को देता हूं। हम चारों भाई-बहनों की पढ़ाई और खर्चे के लिए बाऊजी दिन-रात मेहनत करते थे। सर्दी-गर्मी यहां तक कि बरसात में भी उन्होंने रिक्शा खींचा है। एक दिन बाऊजी को तेज बुखार था, लेकिन खाने को घर में कुछ नहीं होने की वजह से वे मजबूरी में रिक्शा लेकर निकल पड़े। मेरी आंखें नम हो गईं। उस वक्त ही मैंने ठान लिया कि किसी भी कीमत पर मुझे कामयाब और सिर्फ कामयाब होना है।

सनक ने दिलाई सफलता

इसे सनक कहेंगे या स्वभाव, लेकिन गोविंद हमेशा जिद्दी और दृढ़निश्चयी रहा है। एक बार उसने जो ठान लिया, उसे पूरा करना ही उसकी आदत रहा। परीक्षा की तैयारी के दौरान वह 13 से 16 घंटे रोज पढ़ता। ज्यादा पढऩे से हालात ऐसे हो गए कि उन्हें डॉक्टर के पास जाना पड़ा। डॉक्टर ने उनसे कहा कि अगर आप मानसिक रोगी होने से बचना चाहते हो तो दो-तीन दिन के लिए पढ़ाई को पूरी तरह से छोड़ दो। लेकिन धुन के पक्के गोविंद का कहना था,'यूं मैं बीमार होऊं या नही,ं लेकिन अब नहीं पढ़ा और एक पल भी जाया किया तो शायद जरूर बीमार पड़ जाऊंगा। गोविंद का यही दृढ़ नजरिया उन्हें औरों से जुदा बनाता है।
पढ़ाई की रणनीति

जब हर काम को हम योजनाबद्ध तरीके से करते हैं, तो पढ़ाई क्यों नहीं? मेरा मानना है, पढऩे से ज्यादा जरूरी है उस पर चिंतन करना, जो कुछ भी पढ़ रहे हैं, उसे गहराई में जाकर समझना। शॉर्ट कट रास्ता ज्यादा लंबा नहीं होता और 'लंबी रेस के घोड़ों के लिए तो गंभीर और तरीकेबद्ध अध्ययन ही जरूरी है। मैंने भी ऐसा ही करने की कोशिश की और यहां तक पहुंचा। विषय के चयन पर हमारे सवाल का जवाब गोविंद ने कुछ इस तरह दिया,'मुझे किसी ने विषय चुनने को नहीं कहा। मेरे एक दोस्त के पास इतिहास की काफी किताबें थीं, लिहाजा मैंने यह विषय चुन लिया। दूसरा विषय मैंने दर्शनशास्त्र रखा, क्योंकि इसका सिलेबस छोटा था और विज्ञान की मेरी पृष्ठभूमि के चलते काफी सहायक भी सिद्घ हुआ।

पढ़ाई की रणनीति पर वे कहते हैं,'मेरा यह मानना है कि हम भले ही किताबें कम पढ़ें लेकिन जो भी पढ़ें, उन्हें बार-बार और गहराई से पढें़ । मैंने सामान्य ज्ञान की तैयारी अखबारों और मैगजीनों से की, मैं मानता हूं कि अखबार अपने आप में एनसाइक्लोपीडिय़ा होते हैं। यदि उन्हें केवल पढऩे की बजाए उनका 'अध्ययन किया जाए, तो सामान्य ज्ञान स्वत: ही अच्छा हो सकता है।

मार्गदर्शन बना वरदान

कॅरियर को संवारने में मुझे परिवार की ओर से कोई मार्गदर्शन नहीं मिला, लेकिन मेरे दोस्तों, खासतौर पर गुरुजनों का अच्छा सहयोग रहा। दोस्त हमेशा मेरी हौसला अफजाई करते रहे, कभी उन्होंने मुझे कमजोर नहीं पडऩे दिया। वहीं गुरुजन मुझे अपडेट करते रहे। दर्शनशास्त्र को समझने और आईएएस की तैयारी करने में दिल्ली के 'पातंजलि इंस्टीट्यूट के धर्मेंद्र कुमारजी ने मेरी काफी मदद की। उन्हीं के मार्गदर्शन से मैं अच्छे अंक ला पाया।

3 टिप्‍पणियां:

  1. गोविन्द जैसे युवा नई पीढी के लिए प्रेरणा स्रोत है. उनकी जिजीविषा को सलाम. वैसे उनकी अग्निपरीक्षा तो अब शुरू होगी. उन्होंने जिस काजल की कोठरी में कदम रखा है वहां वे स्वयं को बेदाग बनाये रखते हुए देश और समाज, खासकर अभावों में जीते लोगों के लिए कुछ कर सकें यही शुभकामना है.

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  2. नमस्ते सर। मैं भी कोहराम मचाने की आपकी बात से सहमत हूं। तूफान तो आपकी एग्जाम लेने आते हैं। और जिसने मेहनत की है, वो कभी एग्जाम से डरता नहीं। लेख बेहद अच्छा है। पता ही नहीं लगा कि आप भी ब्लागिंग कर रहे हैं। आपका ब्लाग बहुत-बहुत अच्छा लगा। आप लिखते रहें। मैं पढ़ता रहूं। यही आशा है।

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