बुधवार, 26 अगस्त 2009

वक्त की कीमत पहचानो दोस्तो
मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर उन चुनींदा लोगों में से हैं, जो निजी जिंदगी के बारे में बहुत कम बोलते हैं। पिछले दिनों उनके एक वक्तव्य ने मुझे इतना प्रभावित किया मैं खुद को लिखने से रोक नहीं पाया। सचिन एक इंटरव्यू में बोले कि उनकी जिंदगी के शुरुआती सालों में ऐसे कई मौके आए, जब उन्हें लगा कि वे बहक सकते हैं। उन्हें लगा कि अभ्यास छोड़ उन्हें दोस्तों के साथ मस्ती करनी चाहिए, फिल्में देखनी चाहिए। अपनी युवावस्था को एंजॉय करना चाहिए। कुछ ऐसा ही बैडमिंटन सनसनी सायना नेहवाल के बारे में उनके पिता ने बताया। उन्होंने बताया,'सायना की खाने-खेलने की उम्र है, वह भी चाहती तो आम लड़के- लड़कियों की तरह मस्ती भरी जिंदगी जी सकती थी। आपको ताज्जुब होगा कि उसे अपने रिश्तेदारों के गए, टीवी, सिनेमा देखे, शादी-ब्याह, पिकनिक में गए सालों हो गए। इन दोनों हस्तियों में अगर कोई एक बात कॉमन है, तो वह है इनका वक्त की कीमत पहचानना। ऐसा नहीं कि सचिन और सायना को दुनिया के ग्लैमर और चकाचौंध ने अपनी ओर नहीं खींचा होगा, लेकिन उन्होंने अपनी भावनाओं को काबू में रखकर वक्त की कीमत पहचानी और कड़ी मेहनत के दम पर इस मुकाम तक पहुंचे। संघर्ष के दिनों में अगर वे फिसल जाते, तो शायद आज हम और आप उनकी बातें नहीं कर रहे होते।
दोस्तो, हर इंसान की जिंदगी में एक ऐसा दौर आता है, जब बाहरी दुनिया की हर चीज उसे अपनी ओर खींचती हैं। दोस्त, फिल्में, लड़के-लड़कियां, मौज-मस्ती, पहनना-खाना-पीना सबकुछ। जो लोग इस चुंबकीय आकर्षण से खुद को बचा नहीं पाते, या फिर जिनका ध्यान उम्र के इस नाजुक दौर में भटक जाता है, वे अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रहते हैं। लेकिन जो अपनी भावनाओं पर काबू रखकर वक्त की नजाकत पहचानता है वो आज लोगों के लिए मिसाल बने हुए हैं। राजस्थान के सबसे कम उम्र (28 साल) के कलक्टर जोगाराम इस बात से इत्तेफाक रखते हैं। उनके मुताबिक,'कामयाब लोग कोई अलग नहीं होते। आप और हममें से ही होते हैं। लेकिन उनमें गजब की विल पावर होता है, कुछ कर गुजरने की इतनी सनक होती है कि लेकिन उन्हें ऐसे आकर्षण छू भी नहीं पाते। मेरा मानना है कि आप जिस चीज के पीछे भागोगे उतनी ही वह आपसे दूर होती जाएगी और जिस चीज ही आप उपेक्षा करोगे वह उतनी ही आपके करीब आती चली जाएगी। मैं कभी किसी चीज के पीछे नहीं भागा तो आज सब चीजें मेरे पीछे हैं। यह सिद्घांत केवल करियर में ही नहीं बल्कि जिंदगी के हर क्षेत्र में लागू होता है।
इंसान जितना वक्त को अहमियत देता है, वक्त भी उसे उतना ही निहाल करता है। आज कोई अध्यापक है, तो समझिए उसने पढ़ाई के लिए इतना ही वक्त दिया कि वह यहां तक पहुंच पाया। या कोई इंजीनियर है तो बेशक उसने अध्यापक से ज्यादा वक्त दिया होगा। या फिर कोई चपरासी है, तो उसने अध्यापक से भी कम वक्त को जाना होगा और अगर कोई कलक्टर बना होगा तो उसने सबसे वक्त की कीमत जानी होगी। मतलब है कि जो जितना बोएगा उतना ही पाएगा। ऐसे ढेरों उदाहरण आपने भी अपने इर्द-गिर्द देखे हैं, जिनमें लड़के गलत संगत में पड़कर एक अलग जिंदगी जीते हैं। चौराहों पर बैठना, नशे करना, बात-बात पर लडऩा-झगडऩा उनकी आदत में शुमार होता है। वह वक्त होता है करियर बनाने का लेकिन वे वक्त को याद नहीं रखते तो एक समय के बाद वक्त भी उन्हें भुला देता है और वे केवल रोड इंस्पेक्टरी के अलावा कुछ नहीं कर पाते।
दोस्तो, इसे आप मेरा भाषण कतई नहीं समझें। पिछले कुछ सालों में मुझे दर्जनों संघर्षशील आईएएस, आईआईटीयंस और बिजनेसमैनों के साक्षात्कार लेने का मौका मिला। सबने सफलता के अलग-अलग सूत्र बताए। लेकिन सबकी कामयाबी का एक ही राज था वह था वक्त की इज्जत करना, किसी भी स्तर पर वक्त बरबाद नहीं करना। मित्रो, सफलता रातोंरात नहीं मिलती, एक लंबी साधना होती है, जिसमें वक्त की पूजा होती है। एक दौर गुजरने के बाद एक-एक मिनट आपसे संवाद करेगी और कहेगी कि मैने हर शख्स को कुछ कर गुजरने का मौका दिया। जिसने मेरी कद्र पहचानी वह अर्श पर है और जो सबकुछ जानकर भी अनजान बना रहा वह फर्श पर है। अब आप खुद ही देख लें कि आप खुद को कहां देखना चाहेंगे?

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

कहो आंधियों से आए, कहो बर्फ से जलाए

एक हादसे में शरीर का तीन-चौथाई हिस्सा निष्क्रिय हो जाने के बावजूद तमिलनाड़ू के आयकुड़ी गांव के एस.रामकृष्णन हजारों अपाहिजों को बना रहे हैं आत्मनिर्भर।

शख्सियत: एस. रामकृष्णन

कामयाबी का मंत्र

कहो आंधियों से आए, कहो बर्फ से जलाए,
ये रहा मेरा नशेमन कोई आंख तो दिखाए।


अपाहिज वे नहीं होते, जो शरीर से लाचार हैं, बल्कि वे होते हैं, जिनमें इच्छा शक्ति का अभाव होता है। इस बात को सही साबित कर दिखाया है, तमिलनाड़ू में आयकुड़ी गांव के एस. रामकृष्णन ने। एक हादसे में रामकृष्णन के गर्दन के नीचे के हिस्से ने काम करना बंद कर दिया था। जहां लोग ऐसे हालात में उम्मीद की डोर छोड़ देते हैं, रामकृष्णन ने न केवल जिंदगी को उत्साह और उमंग के साथ जिया बल्कि देश के पोलियोग्रस्त और अपाहिज बच्चों की मदद के लिए भारत का सबसे बड़ा अपाहिज केंद्र 'अमर सेवा संगम बनाकर समाज को हमेशा के लिए ऋणी बना दिया। वे मोहताज नहीं मोहताजों के मसीहा हं। सात बच्चों से शुरू हुए इस केंद्र में पांच हजार से ज्यादा अपाहिज बच्चे अपने पैरों पर खड़ा होने की तालीम ले रहे हैं। 2002 में तत्कालीन राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ने संगम को 'बेस्ट इंस्टीट्यूशन इन द सर्विस ऑफ द डिसेबल्ड एंड अपलिफ्ट द रूरल पुअर से भी सम्मानित किया।

अपने साथ हुए हादसे और हालात को रामकृष्णन कुछ यूं बयां करते हैं,'बचपन से ही मेरी ख्वाहिश देश और समाज के लिए कुछ करने की थी। पढ़ाई-लिखाई के साथ सामाजिक कार्यो में भी मैं हमेशा आगे रहता। बड़ा हुआ तो पिताजी ने इंजीनियरिंग के लिए कोयंबटूर भेज दिया। मेरे मन में देश के लिए कुछ करने का जुनून सवार था। कॉलेज के चौथे सेमेस्टर के एक दिन मैंने अखबार में नौसेना का विज्ञापन देखा। मैं परीक्षा देने तुरंत बंगलौर जा पहुंचा। लिखित और मौखिक परीक्षा के बाद मेरा शारीरिक परीक्षण था, जिसमें मुझे 20 फीट से एक लकड़ी के तख्त पर भी कूदना था। कूदते वक्त संतुलन बिगड़ा और गर्दन में ऐसा झटका लगा कि फिर दुबारा खड़ा नहीं हो पाया। शायद यहीं से मेरी जिंदगी को पलटी खाना था। मेरे शरीर का अब गर्दन से नीचे का कोई भी अंग काम नहीं कर रहा था। यह देख मेरे और मां के आंसू थम नहीं रहे थे। कई महीनों इलाज चला लेकिन मैं दुबारा उठ न सका। अब मैं पूरी तरह मां पर ही निर्भर होकर रह गया। मां ही मुझे खाना खिलाती, नहलाती। यकीन मानिए मैं जिदंगी से पूरी तरह हताश हो चुका था। एक दिन मुझे निराश देख मां बोली, 'बेटा, यदि भगवान ने इतने बड़े हादसे के बाद भी तुझे बचा रखा है, इसके पीछे भी कोई वजह है। मां के शब्दों ने जैसे मुझमें नई जान फूंक दी। मुझे लगा वाकई ईश्वर मरे जरिए कोई नेक काम करवाना चाहते हैं। उस दिन के बाद से मेरी मानसिकता पूरी तरह बदल गई। मैं व्हील चेयर पर ही गांव के कुछ गरीब बच्चों को घर पर पढ़ाने लगा। धीरे-धीरे जब बच्चों की तादाद बढऩे लगी तो मां की मदद से मैंने एक नर्सरी स्कूल की नींव रख दी, जिसमें पहले साल में ही 75 बच्चे थे। कई सालों बाद खुद की हालत देखकर मुझे लगा कि समाज में पोलियोग्रस्त या हादसों में विकलांग बच्चों के लिए भी कुछ किया जाना चाहिए। 1981 में मेरी ख्वाहिश परिवार के सहयोग से 'अमर सेवा संगम में बदल गई। इसमें हम पोलियोग्रस्त या अपाहिज बच्चों को निशुल्क शिक्षा, मेडिकल, भोजन, आवास से लेकर उन्हें वोकशनल कोर्सेज भी करवाने लगे। एक बार हमारे काम को देख अंतरराष्ट्रीय तमिल लेखिका शिवशंकरी ने तमिल अखबारों में इस बाबत लेख लिखा। फिर क्या था, हमारे संस्थान की मदद के लिए हजारों हाथ खड़े हो गए। आज हमारे पास 330 गांवों के हजारों अपाहिज बच्चे शिक्षा लेकर मुख्यधारा में जुड़ रहे हैं।

पिता रिक्शा चालक पुत्र कलेक्टर

कभी भी परिस्थितियों को दोष ना दें, विषम परिस्थितियां ही आपको मंजिल तक पहुंचने की प्रेरणा देती हैं।

खास बात यह नहीं है कि गोविंद जायसवाल पहले प्रयास में आईएएस बने हैं, बल्कि यह कि घर के कमजोर माली हालात भी उन्हें उनके मुकाम को हासिल करने से नहीं रोक पाए।



गोविंद जायसवाल

उम्र: 23 साल

सफलता: पहले प्रयास में आईएएस (सामान्य वर्ग) परीक्षा में 48वीं रैंक।

पारिवारिक पृष्ठभूमि: माली हालत कमजोर, पिता रिक्शाचालक।

प्रेरणा: जब पिताजी को बीमारी में भी रिक्शा खींचते देखा।

दिनचर्या पिछले दो साल से :

सुबह 6 बजे उठना।
7 से 12 बजे तक पढऩा।
1 से 5 बजे तक पढऩा।
शाम 6 से 8 बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना।
रात 9 से 1 बजे तक पढऩा।

युवाओं को संदेश

यह खामोश मिजाज जिंदगी
जीने नहीं देगी,
इस दौर में जीना है तो
कोहराम मचा डालो।


इए आपकी मुलाकात ऐसे शख्स से करवाते हैं, जिसके पिता रिक्शाचालक हैं। घर की माली हालत इतनी नाजुक कि पर्याप्त कपड़े भी मयस्सर नहीं। कोचिंग जाने से पहले वह अपनी शर्ट खुद धोता और सूखने पर उसे पहन कर जाता। यह बात कल हुआ करती थी, लेकिन आज दिल्ली की एक छोटी सी 'खोली में रहने वाला गोविंद कलक्टर बन गया है। उसने यह साबित कर दिया कि अगर नाविक के हौसले बुलंद हों तो प्रचंड तूफान भी उसका इरादा नहीं बदल सकते।

वाराणसी के 23 साल के गोविंद जायसवाल वह शख्स हैं, जिन्होंने पहली कोशिश में ही भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में 48 वीं रैंक लाकर युवाओं के सामने शानदार मिसाल कायम की है। गोविंद के परिजनों ने कभी सोचा भी नहीं था कि वह एक दिन कलक्टर बन सकता है। गोविंद के पिता वाराणसी में रिक्शा चलाते हैं और रिक्शा किराए पर भी देते हैं। यही उनकी आजीविका का एकमात्र साधन है।

अभाव मेरी सबसे बड़ी ताकत

गोविंद के मुताबिक, 'अभाव मेरी सबसे बड़ी ताकत रहे है। हर दिन उठकर मैंने गरीबी और अभावों का सामना किया है। हमारी माली हालत शुरू से ही काफी कमजोर रही। मां बचपन में गुजर गईं। बाऊजी (पिता) सारा दिन रिक्शा चलाकर भी ज्यादा कुछ नहीं कमा पाते थे। जैसे-तैसे तीन बहनों की शादी की। मेरी पढ़ाई के लिए पैसा देना बाऊजी के बूते के बाहर था। ऐसे में बाऊजी के पैर में सेप्टिक हो गया और आमदनी का एकमात्र जरिया भी बंद हो गया। बाऊजी ने रिक्शा किराए पर देना शुरू किया। मैं ग्रेजुएशन के बाद दिल्ली आकर पढऩे लगा। ट्यूशन करके मैं अपना खर्चा निकालता, बाऊजी भी पैसे भेजते रहे। मेरी सफलता में तीनों बहिनों का खासा योगदान रहा। जब कभी टूटने लगता तो वे मां की तरह दुलारतीं, मुझे आगे बढऩे का हौसला देतीं। मेरा मानना है कि कभी भी परिस्थितियों को दोष ना दें, विषम परिस्थितियां ही आपको मंजिल तक पहुंचने की प्रेरणा देती हैं।

बाऊजी बने प्रेरणा

इस मुकाम तक लाने का पूरा श्रेय मैं अपने बाऊजी को देता हूं। हम चारों भाई-बहनों की पढ़ाई और खर्चे के लिए बाऊजी दिन-रात मेहनत करते थे। सर्दी-गर्मी यहां तक कि बरसात में भी उन्होंने रिक्शा खींचा है। एक दिन बाऊजी को तेज बुखार था, लेकिन खाने को घर में कुछ नहीं होने की वजह से वे मजबूरी में रिक्शा लेकर निकल पड़े। मेरी आंखें नम हो गईं। उस वक्त ही मैंने ठान लिया कि किसी भी कीमत पर मुझे कामयाब और सिर्फ कामयाब होना है।

सनक ने दिलाई सफलता

इसे सनक कहेंगे या स्वभाव, लेकिन गोविंद हमेशा जिद्दी और दृढ़निश्चयी रहा है। एक बार उसने जो ठान लिया, उसे पूरा करना ही उसकी आदत रहा। परीक्षा की तैयारी के दौरान वह 13 से 16 घंटे रोज पढ़ता। ज्यादा पढऩे से हालात ऐसे हो गए कि उन्हें डॉक्टर के पास जाना पड़ा। डॉक्टर ने उनसे कहा कि अगर आप मानसिक रोगी होने से बचना चाहते हो तो दो-तीन दिन के लिए पढ़ाई को पूरी तरह से छोड़ दो। लेकिन धुन के पक्के गोविंद का कहना था,'यूं मैं बीमार होऊं या नही,ं लेकिन अब नहीं पढ़ा और एक पल भी जाया किया तो शायद जरूर बीमार पड़ जाऊंगा। गोविंद का यही दृढ़ नजरिया उन्हें औरों से जुदा बनाता है।
पढ़ाई की रणनीति

जब हर काम को हम योजनाबद्ध तरीके से करते हैं, तो पढ़ाई क्यों नहीं? मेरा मानना है, पढऩे से ज्यादा जरूरी है उस पर चिंतन करना, जो कुछ भी पढ़ रहे हैं, उसे गहराई में जाकर समझना। शॉर्ट कट रास्ता ज्यादा लंबा नहीं होता और 'लंबी रेस के घोड़ों के लिए तो गंभीर और तरीकेबद्ध अध्ययन ही जरूरी है। मैंने भी ऐसा ही करने की कोशिश की और यहां तक पहुंचा। विषय के चयन पर हमारे सवाल का जवाब गोविंद ने कुछ इस तरह दिया,'मुझे किसी ने विषय चुनने को नहीं कहा। मेरे एक दोस्त के पास इतिहास की काफी किताबें थीं, लिहाजा मैंने यह विषय चुन लिया। दूसरा विषय मैंने दर्शनशास्त्र रखा, क्योंकि इसका सिलेबस छोटा था और विज्ञान की मेरी पृष्ठभूमि के चलते काफी सहायक भी सिद्घ हुआ।

पढ़ाई की रणनीति पर वे कहते हैं,'मेरा यह मानना है कि हम भले ही किताबें कम पढ़ें लेकिन जो भी पढ़ें, उन्हें बार-बार और गहराई से पढें़ । मैंने सामान्य ज्ञान की तैयारी अखबारों और मैगजीनों से की, मैं मानता हूं कि अखबार अपने आप में एनसाइक्लोपीडिय़ा होते हैं। यदि उन्हें केवल पढऩे की बजाए उनका 'अध्ययन किया जाए, तो सामान्य ज्ञान स्वत: ही अच्छा हो सकता है।

मार्गदर्शन बना वरदान

कॅरियर को संवारने में मुझे परिवार की ओर से कोई मार्गदर्शन नहीं मिला, लेकिन मेरे दोस्तों, खासतौर पर गुरुजनों का अच्छा सहयोग रहा। दोस्त हमेशा मेरी हौसला अफजाई करते रहे, कभी उन्होंने मुझे कमजोर नहीं पडऩे दिया। वहीं गुरुजन मुझे अपडेट करते रहे। दर्शनशास्त्र को समझने और आईएएस की तैयारी करने में दिल्ली के 'पातंजलि इंस्टीट्यूट के धर्मेंद्र कुमारजी ने मेरी काफी मदद की। उन्हीं के मार्गदर्शन से मैं अच्छे अंक ला पाया।

मंगलवार, 11 अगस्त 2009

आप भी ममी बन जाइए...

अगर आपको यकीन है कि विज्ञान शीघ्र मौत के रहस्यों को सुलझा लेगा और मर चुके व्यक्तियों को फिर से जिंदा कर देगा, तो अपने शरीर को मरने के बाद सुरक्षित करवा लीजिए। यह मजाक नहीं सच्चाई है। अमरीका में कई ऐसे संगठन हैं, जो मौत के बाद फिर से जी उठने का भरोसा दिलाकर लोगों के शरीर को चोरी छिपे सुरक्षित रख रहे हैं। वे शरीर को तब तक सुरक्षित रखने की गारंटी का दावा करते हैं जब तक मौत से पार पाकर फिर से जिंदा करने की वैज्ञानिक खोज पूरी ना हो जाए। मशहूर शख्सियतों सहित कई लोगों में मृत्यु के बाद शरीर सुरक्षित रखने का सिलसिला चल निकला है, जिसके चलते मशहूर हस्तियां अपने शरीर का पंजीकरण करवा रही हैं। क्या यह ममीज का आधुनिक रूप तो नहीं है? खास नजर-

सोचना भी एक सपना सा लगता है कि क्या एक बार मौत आने के बाद वापस जीवित हो पाएंगे? लेकिन इंसान मौत के रहस्यों को सुलझाने में जुटा है। आप इसे सनक कहें या विज्ञान से उम्मीद कि उसे लगता है कि शायद एक न एक दिन इंसान मौत को मात देगा। इसी यकीन के चलते वो कई तरह की विधियां भी ईजाद कर रहा है। क्रायोनिक्स ऐसी ही विधि है जिसके जरिए मौत के बाद शरीर को बेहद कम तापमान पर तब तक इस आस में सुरक्षित रखा जाता है, जब तक विज्ञान इतना विकसित न हो जाए कि मुर्दों में जान फूं की जा सके। शरीर को सुरक्षित रखने की प्रक्रिया को क्रायोप्रिजर्वेशन कहा जाता है। यानी हो सकता है कि एक दिन आप बहुत गहरी नींद से जागें और पाएं कि दुनिया 200 साल आगे निकल गई है और आप अपने आसपास किसी को भी नहीं जानते या फिर जान भी सकते हैं अगर आपके इष्ट मित्रों ने भी आपके साथ खुद को क्रायोप्रिजव्र्ड करवाया हो।

अगर आप अब भी यह सोच रहे हैं कि यह सब बातें अभी कागजी और फैंटसी की दुनिया में ही हैं, तो आपको बता दें कि जानी-मानी मॉडल और अभिनेत्री पेरिस हिल्टन सहित करीब एक हजार शख्सियतों ने क्रायोप्रिजर्वेशन के लिए पंजीकरण करवा लिया है। करीब 147 लोगों का तो क्रायोप्रिजर्वेशन हो भी चुका है। पेरिस हिल्टन के बारे में एक रोचक बात यह भी है कि वे अकेली नहीं बल्कि अपने कुत्ते के साथ फिर से जिंदा होना चाहती हैं। फिलहाल अमरीका में दो ऐसे संगठन हैं जो आपको मौत के बाद फिर से जी उठने की उम्मीद दे रहे हैं ये हैं मिशिगन के क्लिंटन शहर में स्थित द क्रायोनिक्स इंस्टीट्यूट और एरिजोना के स्कॉट्सडेल शहर में स्थित एल्कॉर।

क्रायोनिक्स के जरिए फिर से जिंदा होने की इच्छा रखने वालों के पास दो तरह के विकल्प होते हैं। पहले विकल्प के अंतर्गत पूरे शरीर को सुरक्षित रखा जा सकता है। दूसरे विकल्प में शरीर से सिर को अलग कर सिर्फ उसे ही सुरक्षित रखा जाता है। इसके पीछे यह सोच होती है कि एक वृद्ध इंसान अपने जर्जर शरीर के साथ फिर से जीना नहीं चाहेगा और जब उसे जिंदा किया जाएगा तो विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली होगी कि उसके दिमाग के लिए एक नया शरीर भी तैयार होगा। जहां तक इन तरीकों में आने वाले खर्च का सवाल है तो एल्कॉर पहले विकल्प के लिए 80 हजार डॉलर और दूसरे विकल्प के लिए 42 हजार डॉलर तक वसूलती है।

इस तकनीक का इस्तेमाल भले ही 1962 से हुआ, लेकिन प्राचीन मिस्र में यह धारणा आम थी कि मरने के बाद शरीर को सुरक्षित रखकर पुनर्जन्म मुमकिन है। वर्ष 1773 में अमरीका के महान विद्वान बैंजामिन फ्रेंकलिन ने भी कहा था कि मरने के बाद शरीर को सुरक्षित रख उसमें प्राण फूंकना विज्ञान के लिए नामुमकिन नहीं। वर्ष 1962 में मिशिगन विश्वविद्यालय के भौतिकशास्त्री रॉबर्ट एटिंगर ने अपनी किताब द प्रॉस्पेक्ट ऑफ इमोर्टेलिटी में इस विधि से फिर से जिंदा होने की कल्पना के वैज्ञानिक प्रमाण दिए थे।

विवाद भी आशाएं भी
क्रायोनिकस के पैरोकार इसके पक्ष में भले ही तमाम दावे करें, लेकिन इस पर विवाद और आपत्तियां उठती रही हैं। कुछ ऐसी वैज्ञानिक बाधाएं हैं, जिनके बारे में कुछ लोगों का कहना है कि उनसे कभी पार नहीं पाया जा सकेगा। मसलन पूरे शरीर को सुरक्षित करने के लिए जिन रसायनों [क्रायोप्रोटेक्टेट कैमिकल्स] का वर्तमान में इस्तेमाल किया जा रहा है उनसे शरीर को अच्छा-खासा नुकसान पहुंचता है। ऐसे लोगों को फिर से जीवित करने के लिए नुकसान की इस प्रक्रिया को पलटने की जरू रत होगी। इसके साथ ही उस बीमारी का इलाज खोजे जाने की भी जरू रत होगी जिससे संबंधित व्यक्ति की मौत हुई थी। उम्मीद की किरण यह है कि विज्ञान उस बिंदु तक तो पहुंच ही गया है, जहां उसने जीवन के स्वरू पों को जमी हुई और स्थिर अवस्था में रखने और फिर बाद में उसे पुनर्जीवित करने के तरीके खोज लिए हैं। मसलन लाल रक्त कोशिकाएं, स्टेम कोशिकाएं, शुक्राणु और अंडाणु को क्रायोबॉयोलॉजी का इस्तेमाल करके ही सुरक्षित रखने का चलन आम हो चुका है। हालांकि यह काफी सरल स्वरू प है और शरीर जैसे बेहद जटिल तंत्र को सुरक्षित रखना अब भी एक चुनौती है।

यूं बनती है आधुनिक ममी
अब यह भी जान लिया जाए कि शरीर को क्रायोप्रिजव्र्ड आखिर किया कैसे जाता है। जैसे ही दिल धड़कना बंद करता है और कानूनी परिभाषा के हिसाब से व्यक्ति की मौत हो जाती है तो शरीर को संरक्षित करने वाली टीम फौरन अपने काम में जुट जाती है। सबसे पहले और मरते ही शरीर को कम तापमान में रखकर दिमाग में पर्याप्त खून भेजने का इंतजाम किया जाता है ताकि दिमाग की कोशिकाएं सलामत रहें। गौरतलब है कि ऑक्सीजन न मिलने से कोशिकाएं मरने लगती हैं और यदि शरीर को तुरंत कम तापमान में रख दिया जाए तो यह प्रक्रिया धीमी हो जाती है। उदाहरण के लिए तापमान में 10 डिग्री कमी लाकर इस प्रक्रिया में लगने वाले समय को दुगुना किया जा सकता है, जिस जगह मौत हुई है वहां से क्रायोप्रिजर्वेशन किए जाने वाली जगह [क्रायोनिक्स फैसिलिटी] तक जाने के सफर में खून के थक्के न बनने लगे इसके लिए इंजेक्शन की मदद से हेपेरिन नामक दवा दी जाती है। शव को क्रायोनिक फैसिलिटी ले जाया जाता है और यहां सबसे पहला काम होता है शरीर में मौजूद 60 फीसदी पानी को बाहर निकालना। यह काम इसलिए किया जाता है कि अगर शरीर को सीधे ही बेहद कम तापमान पर तरल नाइट्रोजन में रख दिया जाएगा तो कोशिकाओं के भीतर पानी जम जाएगा। चूंकि पानी जमने पर आकार में फैल जाता है इसलिए यह कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाएगा। कोशिकाओं से मिलकर ऊतक [टिश्यू] बनते हैं। उतकों से मिलकर अंग और फिर अंगों से क्रायोप्रेटेक्टेट नामक रसायन भर दिए जाते हैं। यह कम तापमान पर जमते नहीं और इसलिए कोशिका उसी अवस्था में सुरक्षित रहती है। इस प्रक्रिया को विट्रीफिकेशन कहा जाता है। इसके बाद शरीर को बर्फ की मदद से -130 डिग्री तापमान तक ठंडा किया जाता है। अगला कदम होता है शरीर को तरल नाइट्रोजन से भरे एक टैंक में रखना। यहां तापमान -196 डिग्री रखा जाता है। इसके बाद कुछ रह जाता है तो सिर्फ जीवित होने का अनिश्चित इंतजार।
150 सेलेब्रिटीज कतार में
क्रायोप्रिजव्र्ड सेलिब्रिटीज की बात की जाए तो पेरिस हिल्टन के अलावा अमरीका के प्रसिद्ध बेसबॉल खिलाड़ी टेड विलियम्स का नाम प्रमुख है, जिनका निधन 2002 में हुआ था। मौत के बाद उनके बेटे जॉन हैनरी ने घोषणा की थी कि उनके शरीर को दफनाया नहीं जाएगा, बल्कि उसे एरिजोना में क्रायोप्रिजर्वेशन के लिए भेजा जाएगा। अफवाह यह भी रही कि वाल्ट डिज्नी के शरीर को भी क्रायोप्रिजव्र्ड किया गया, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हुई। सेंटर मालिकों पर नाम जाहिर करने पर पाबंदी है, लिहाजा वे जल्दी से पंजीकृत सेलेब्रिटीज का नाम नहीं बताते। बावजूद इसके माना जा रहा है कि अलग-अलग क्रायोनिक्स सेंटरों में दुनिया भर की करीब 150 सेलेब्रिटीज अपना नाम पंजीकृत करवा चुके हैं। अमरीका में क्रायोनिक्स के खासे चर्चे हैं। जिसके चलते अमरीकन राष्ट्रपति के दावेदार जॉन मैक्केन ने भी अपने शहर में एक क्रायनिक्स सेंटर खोला है।

क्रायोनिक्स बना बिजनेस
ग्रीक भाषा से लिया हुआ क्रायोनिक शब्द का अर्थ है ठंडा। शरीर को इतने कम तापमान पर रखा जाए कि यह सैकड़ों साल तक सुरक्षित रहे। कहने वाल इसे पैसा कमाने की नई तरकीब भी कहते हैं। उनमें से कुछ का कहना है, वह दिन आएगा, जब आएगा लेकिन उससे पहले तो बेवजह पैसा बनाया ही जा रहा है। क्रायोनिक्स एक बिजनेस बन गया है, जिसके जरिए होशियार लोग खासा पैसा कमा रहे हैं। अमरीकन बीमा कंपनियां पैसा कमाने में कहीं पीछे नहीं हैं। इन दिनों बीमा कंपनियां क्रायोनिक्स को आधार बनाकर पॉलीसियां बेच रही हैं। उनका कहना है कि अगर किसी शख्स ने जीवन बीमा कराया है तो उसके मरने के बाद मिलने वाला पैसा उसे क्रायोप्रिजव्र्ड रखने में काम आ सकता है। यानी एक गरीब इंसान भी अपने शरीर को क्रायोप्रिजव्र्ड करा सकता है, क्योंकि बीमा पॉलिसी का प्रीमियम केबल टेलीविजन के खर्च से भी कम है।

धार्मिक भावनाओं के खिलाफ

यह तकनीक भले ही विज्ञान की सफलता मानी जाए, लेकिन आत्मा-परमात्मा और पुनर्जन्म के सिद्धांत की घोर अवहेलना करती है। लेकिन क्रायोनिक्स के पैरोकार अलग ही तर्क देते हैं। उनका कहना है कि जब किसी शरीर को क्रायोप्रिजव्र्ड किया जाता है, तो आत्मा के इधर-उधर भटकने का सवाल ही नहीं उठता। उनका तर्क है कि जब हम सोते हैं तो हमारी आत्मा कहां जाती है? जब किसी मरीज को बेहोशी का इंजेक्शन लगाया जाता है, या उसका शरीर कोमा में होता है, तो उसकी आत्मा कहां जाती है? इसी तरह से क्रायोप्रिजव्र्ड शरीर की आत्मा भी उसी के साथ होती है।

क्रायोनिक्स पर पुस्तकें
1962- द प्रॉस्पेक्ट्स ऑफ इमोर्टेलिटी- रॉबर्ट एटिंगर
पुस्तक में क्रायोनिक्स के विचार के साथ इसके सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू की बात की गई है।
1986- एंजिन्स ऑफ क्रिएशन- के. इरिक ड्रेक्सलर
पुस्तक में नैनोटेक्नोलॉजी के भविष्य के साथ ऐसी मोलेक्यूलर स्केल मशीन का जिक्र है, जो बुढ़ापे के समय खराब होने वाले ऊतकों की मरम्मत कर सकती है। इससे न केवल बुढ़ापे को टाला जा सकता है, बल्कि क्रायोप्रिजर्वेशन के दौरान शरीर को होने वाले नुकसान की भरपाई भी की जा सकती है।
1998- द फस्र्ट इमोर्टल - जेम्स हाल्पेरिन
हालांकि यह एक उपन्यास है, लेकिन इसमें क्रायोनिक्स के सिद्धांतों और अनुप्रयोगों का विस्तार से वर्णन है।
2004- द साइंटिफिक कंक्वेस्ट ऑफ डेथ-
पुस्तक में क्रायोनिक्स और अमरता के दूसरे तरीकों पर आधारित प्रयोगों को निबंध के रूप में दिया गया है।
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'जात पे ना पात पे, वोट मिलेगा बाल पे
नजफगढ़ के नवाब सहवाग के घर के आगे सैंकड़ों लोगों की भीड़ पड़ रही थी, मिठाइयां बांटी जा रही थी। हाथों में तरह-तरह के विग और पोस्टर लेकर भंगड़ा करते देख अपन ने सोचा कि चुनावों का माहौल है। हो सकता है नवाब साहब को नवाबी करने का चढ़ गया हो और उन्होंने भी चुनाव लडऩे की सोच ली हो। समर्थकों के हाथों में विग देखकर पक्का यकीन हो गया कि चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह भी शायद विग ही दिया लगता है। ऐसा जानकर अपन भी बीच में जाकर कूदने-फांदने लगे। बीच में जाकर जोर से नारा लगाया, 'जात पे ना पात पे, वोट मिलेगा बाल पे।

अपन को ज्यादा उत्साहित देख नवाब का कोई रिश्तेदार अपन की बाजू पकड़कर खींचते हुए एक कोने में ले गया और बोला,'अबे, ये बाल-वाल के क्या नारे लगा रहा है। अपन बोले,'क्यों क्या हुआ, देखना अपन नारे लगाएंगे तो सहवाग भाई जरूर जीतेंगे। क्या सहवाग का दिमाग खराब है, जो चुनाव लड़ेगा? सैंकड़ों टोटके करने पर बेचारे की अब सुध आई है और तू है कि वापस उसे ठिकाने लगाने की सोच रहा है। वैसे भी यहां कोई चुनाव-वुनाव का प्रचार नहीं हो रहा बल्कि सहवाग के हेयर ट्रांसप्लांट की खबर की खुशी मनाई जा रही है।

'बड़े जतन के बाद ये दिन देखने को मिला है। तुम्हें पता नहीं सहवाग ने क्या-क्या नहीं इन बालों के चक्कर में। जब पहली बार मैदान में आया तो लोगों ने उसे तेंदुलकर की कॉपी, हमशक्ल यहां तक कि सचिन का क्लोन तक कहा गया। लेकिन उधर सचिन के रन जितनी गति से बढ़ते गए श्रीमान के बाल उतने ही कम होते गए। रन बने सटासट और बाल उड़े फटाफट। बेचारे स्कार्फ बांधकर मैदान में उतरते कि कहीं कोई फोटोग्राफर बालों का क्लोजअप न ले ले। विज्ञापन कंपनी वालों में भी ज्यादातर हेलमेट और कैप के विज्ञापन करवाने लगे। 30 की उम्र में 40 के लगने लगे। और तो लोगों ने ऑटोग्राफ तक लेने कम कर दिए। इस टेंशन का असर खेल पर पड़ा और बालों की तर्ज पर रन भी कम होते गए।

बेचारे मन ही मन कुडऩे लगे। कोढ़ में खाज तब हो गई, जब पाकिस्तान के मैच में मियां मुशर्रफ ने धोनी के बालों की तारीफ करते हुए उसे जुल्फें न कटाने तक की गुजारिश कर दी। उस दिन तो मानों भाई को मानो लकवा ही मार गया हो। उस दिन कसम खा ली कि अब तो बाल बढ़ाने ही हैं। चाहे कुछ भी हो जाए। संयोग ऐसा बना कि कई बार बाल प्रत्यारोपण करवा चुके रिकी पोंटिंग से टकरा गए। उनके सामने अपनी व्यथा सुनाई तो रिकी बोले,'गंजेपन का बोझ झेलने वाले तुम अकेले क्रिकेटर नहीं हो। इससे पहले शेन वार्न, ग्राहम गूच, ग्रेग मैथ्यू जैसे दिग्गज गंजे होने के ताने झेल चुके हैं। लेकिन कोई चिंता नहीं, सब दुबई गए और शानदार बाल बढ़वाकर आ गए।

लेकिन लोग क्या कहेंगे? यह सोचकर सहवाग ने कई बार आइडिया ड्रॉप कर दिया। अब एक बार फिर जब रिकी पोंटिंग भारत आए, तो गंजा देखकर चौंक गए और बोले, 'ओए वीरू ये क्या? दुनिया वीरान हो जाएगी, बीवी छोड़कर भाग जाएगी। कुछ नहीं रखा फटाफट बालों का प्रत्यारोपण करवा लो। अरे बालों के खटके तो देख कैसे चंगू-मंगू भी हीरो बने नजर आते हैं। मिसाल सामने है। कल तक हिमेश टोपी में अपना सिर छुपाकर निकला करता था, वहीं आज बालों में हाथ डाले नजर आता है। सलमान से बड़ी और क्या मिसाल हो सकती है, गंजा हुआ तो ऐश भी किनारा कर गई और बाल उगे तो कैटरीना मिल गई...। बात पूरी भी नहीं हुई थी कि सहवाग भैया बोरी-बिस्तर बांधकर सहविग बनने चल निकले। अब देखना है कि उनके सितारे कितने चमकते नजर आते हैं।

'जात पे ना पात पे, वोट मिलेगा बाल पे

नजफगढ़ के नवाब सहवाग के घर के आगे सैंकड़ों लोगों की भीड़ पड़ रही थी, मिठाइयां बांटी जा रही थी। हाथों में तरह-तरह के विग और पोस्टर लेकर भंगड़ा करते देख अपन ने सोचा कि चुनावों का माहौल है। हो सकता है नवाब साहब को नवाबी करने का चढ़ गया हो और उन्होंने भी चुनाव लडऩे की सोच ली हो। समर्थकों के हाथों में विग देखकर पक्का यकीन हो गया कि चुनाव आयोग ने चुनाव चिन्ह भी शायद विग ही दिया लगता है। ऐसा जानकर अपन भी बीच में जाकर कूदने-फांदने लगे। बीच में जाकर जोर से नारा लगाया, 'जात पे ना पात पे, वोट मिलेगा बाल पे।

अपन को ज्यादा उत्साहित देख नवाब का कोई रिश्तेदार अपन की बाजू पकड़कर खींचते हुए एक कोने में ले गया और बोला,'अबे, ये बाल-वाल के क्या नारे लगा रहा है। अपन बोले,'क्यों क्या हुआ, देखना अपन नारे लगाएंगे तो सहवाग भाई जरूर जीतेंगे। क्या सहवाग का दिमाग खराब है, जो चुनाव लड़ेगा? सैंकड़ों टोटके करने पर बेचारे की अब सुध आई है और तू है कि वापस उसे ठिकाने लगाने की सोच रहा है। वैसे भी यहां कोई चुनाव-वुनाव का प्रचार नहीं हो रहा बल्कि सहवाग के हेयर ट्रांसप्लांट की खबर की खुशी मनाई जा रही है।

'बड़े जतन के बाद ये दिन देखने को मिला है। तुम्हें पता नहीं सहवाग ने क्या-क्या नहीं इन बालों के चक्कर में। जब पहली बार मैदान में आया तो लोगों ने उसे तेंदुलकर की कॉपी, हमशक्ल यहां तक कि सचिन का क्लोन तक कहा गया। लेकिन उधर सचिन के रन जितनी गति से बढ़ते गए श्रीमान के बाल उतने ही कम होते गए। रन बने सटासट और बाल उड़े फटाफट। बेचारे स्कार्फ बांधकर मैदान में उतरते कि कहीं कोई फोटोग्राफर बालों का क्लोजअप न ले ले। विज्ञापन कंपनी वालों में भी ज्यादातर हेलमेट और कैप के विज्ञापन करवाने लगे। 30 की उम्र में 40 के लगने लगे। और तो लोगों ने ऑटोग्राफ तक लेने कम कर दिए। इस टेंशन का असर खेल पर पड़ा और बालों की तर्ज पर रन भी कम होते गए।

बेचारे मन ही मन कुडऩे लगे। कोढ़ में खाज तब हो गई, जब पाकिस्तान के मैच में मियां मुशर्रफ ने धोनी के बालों की तारीफ करते हुए उसे जुल्फें न कटाने तक की गुजारिश कर दी। उस दिन तो मानों भाई को मानो लकवा ही मार गया हो। उस दिन कसम खा ली कि अब तो बाल बढ़ाने ही हैं। चाहे कुछ भी हो जाए। संयोग ऐसा बना कि कई बार बाल प्रत्यारोपण करवा चुके रिकी पोंटिंग से टकरा गए। उनके सामने अपनी व्यथा सुनाई तो रिकी बोले,'गंजेपन का बोझ झेलने वाले तुम अकेले क्रिकेटर नहीं हो। इससे पहले शेन वार्न, ग्राहम गूच, ग्रेग मैथ्यू जैसे दिग्गज गंजे होने के ताने झेल चुके हैं। लेकिन कोई चिंता नहीं, सब दुबई गए और शानदार बाल बढ़वाकर आ गए।

लेकिन लोग क्या कहेंगे? यह सोचकर सहवाग ने कई बार आइडिया ड्रॉप कर दिया। अब एक बार फिर जब रिकी पोंटिंग भारत आए, तो गंजा देखकर चौंक गए और बोले, 'ओए वीरू ये क्या? दुनिया वीरान हो जाएगी, बीवी छोड़कर भाग जाएगी। कुछ नहीं रखा फटाफट बालों का प्रत्यारोपण करवा लो। अरे बालों के खटके तो देख कैसे चंगू-मंगू भी हीरो बने नजर आते हैं। मिसाल सामने है। कल तक हिमेश टोपी में अपना सिर छुपाकर निकला करता था, वहीं आज बालों में हाथ डाले नजर आता है। सलमान से बड़ी और क्या मिसाल हो सकती है, गंजा हुआ तो ऐश भी किनारा कर गई और बाल उगे तो कैटरीना मिल गई...। बात पूरी भी नहीं हुई थी कि सहवाग भैया बोरी-बिस्तर बांधकर सहविग बनने चल निकले। अब देखना है कि उनके सितारे कितने चमकते नजर आते हैं।

इस दौर मे जीना है तो कोहराम मचा डालो

शनिवार, 8 अगस्त 2009

36:24:36

अजी सुनते हो, माधुरी '36:24:36 में नजर आएगी। श्रीमती किचन में दाल में तड़का लगाते हुए बोली। अपन का माथा ठनका कि आज सुबह-सुबह श्रीमती को क्या सूझी, जो साग-सब्जी को छोड़ धक-धक गर्ल की बात कर अपन का दिल धड़का रही है। उसकी बातों को हवा में लेते हुए अपन बोले,'भाग्यवान, माधुरी दो बच्चों की अम्मा बन चुकी है, अब यह संभव नहीं है। पत्नी बड़बड़ाते हुए बोली,'बुरा दिमाग हमेशा बुरा ही सोचता है। मैं माधुरी के फिगर की बात नहीं कर रही। उसकी आने वाली फिल्म की बात कर रही हूं।

अपन कुछ और बोलते कि इससे पहले वह बोली,'आजकल के फिल्मकारों का दिमाग क्या भांग खाने गया है? फिल्मों के ऐसे ऊल-जुलूल नाम रखने लगे हैं कि फिल्में देखना तो दूर नाम सुनकर ही अच्छा-भला आदमी चमक जाए। पहले की फिल्मों के नाम में ही इतनी तहजीब हुआ करती थी कि दिल गार्डन-गार्डन हो जाता था। आज की कई फिल्मों का नाम लेना ही गाली देने जैसा हो गया है। 'कमीने, 'पापी, 'पापात्मा, 'जहरीले,'हत्यारा क्या हैं ये सब? पिक्चर बनाने वालों के पास शब्दों का अकाल पड़ गया कि दिमाग की बैटरियां फुंक गई, जो इतने घटियापन पर उतर गए हैं।

पहले की फिल्मों का टाइटल देखकर हम जैसे अज्ञानी लोग बिना पिक्चर देखे उसकी कहानी का अंदाजा लगा लिया करते थे, लेकिन आज उसी ढर्रे पर चलें, तो अर्थ का अनर्थ हो जाए। पिछले दिनों एक फिल्म आई 'गरम मसाला। नाम देखकर लगा कि कोई मसाले वाली पर कोई आर्ट मूवी होगी। लेकिन असलियत कुछ और ही निकली। 'मनी है तो हनी है मतलब 'पैसे हैं तो शहद है या 'चाइना टाउन फिल्म में न चाइना है न टाउन, अरे, कोई सिर-पूंछ का कॉम्बीनेशन तो बिठाओ। ये क्या, जो मर्जी आया वही नाम रख दिया। मेरा तो सिर धुनने को मन करता है। थोड़े दिनों पहले फिल्म आई 'मेरे बाप पहले आप अरे, नासमझो, इसमें बताने की क्या जरूरत है। बाप तो बेटे से हमेशा ही आगे ही रहता है। अब फिल्म आ रही है,'अगली और पगली देखना है उसमें पागलों को भी कोई रोल मिल रहा है क्या?

मुझे तो लगता नहीं कि हिंदुस्तानी फिल्मकारों ने ऐसी कोई चीज छोड़ी हो, जिस पर फिल्म का नाम नहीं हो। सोचो जरा, रोटी, कोयला, माचिस, राख, शमशान, जिंदा, मुर्दा, नमक, चीनी से लेकर आकाश, पाताल, टैक्सी, ट्रेन, आग, पानी, शरीर, आत्मा, पुण्य, पाप, भगवान, शैतान तक के नाम पर फिल्में बना दी। कुछ अब बचे हैं, तो केवल जूते, चप्पल, शर्ट, पेंट, नाक, कान, अंगुली, पैर, बाल जैसे शब्द। हो सकता है कोई 'क्रिएटिव फिल्मकार इन पर भी अपना हुनर दिखा दे। फिल्म बनाने वालों से पूछो, तो कहते हैं कि हमारे टाइटल 'कुछ हटकर होते हैं। अरे भलेमानुषो, इस हटकर देने के चक्कर में इतना तो मत हटो कि खुद का हटवाड़ा निकल जाए। श्रीमती के श्रीमुख से बॉलीवुड फिल्मकारों की विद्वतापूर्ण पोस्टमार्टम देख अपन भी खिसक लिए, क्योंकि पता है एक बार यह रेडियो शुरू होने के कई घंटों बाद तक बिना लाइट सर्विस देता है।

शुक्रवार, 7 अगस्त 2009

हुस्नकार फिदा हुसैन

हुस्न के असली कद्रदान और कला के पारखी हुसैन दद्दू को मेरा दंडवत प्रणाम। दद्दू कमाल का जिगरा है आपका, इस उम्र में जहां लोग दुनिया से विदा हो जाते हैं, वहीं आप हैं कि फिदा पे फिदा हुए जा रहे हैं। फिल्म इंडस्ट्री की शायद ही कोई खूबसूरत हीरोइन होगी, जो आपके 'कलात्मक नजरिए से बच पाई हो। मुमताज से लेकर माधुरी फिर तब्बू में आपको ऐसा सौंदर्य नजर आया कि पूरे देश के बुड्ढ़ अपना आदर्श मानकर आपकी प्रतिमा बनाने की भी मांग करने लगें तो ताज्जुब मत करना। यदि अपन देश के प्रधानमंत्री होते तो आपकी काबिलियत के अनुसार शर्तिया आपको महिला विकास मंत्रालय का ब्रांड एंबेसेडर बना देते।

अपन को तो लगता है कि आपका जन्म महिलाओं के उत्थान के लिए ही हुआ है। .. और आप उस पर पूरी तरह खरे भी उतर रहे हैं। क्या-क्या नहीं किया आपने महिलाओं के लिए? महिलाओं के अंग-प्रत्यंगों पर आपकी सबसे ज्यादा कूंची चली। जितनी भी पकाऊ फिल्में बनाई सबके टाइटल महिला नामों पर ही रखे। सौंदर्य बोध भी आपको केवल सिने-तारिकाओं में ही नजर आया। कभी सिक्स एब्स पैक, ऐट एब्स पैक वाले हीरो फूटी आंख भी पसंद नहीं आए। आपको तो लोग 'इश्क का देवताÓ भी कहें तो भी कम होगा। लोगों के मुंह से अक्सर सुना करते थे कि बुझता दिया एक बार फडफ़ड़ता जरूर है लेकिन आप तो एक बार नहीं कई बार फडफ़ड़ाते नजर आए।

आपकी तारीफ में कशीदे काढऩा अपन के बूते से तो बाहर है, फिर भी गुस्ताखी करने की गुस्ताखी कर रहा हूं। पहली बार माधुरी से आंखें लड़ीं, तो ऐसी लड़ीं कि 'हम आपके हैं कौन को लाठी के सहारे ही सही, सौ से ज्यादा बार देख आए। फडफ़ड़ाहट कम नहीं हुई तो उन्हें सौंदर्य की देवी बनाकर पेंटिंग बना डाली। इतने से भी जी नहीं भरा तो 'गजगामिनी नाम से जानलेऊ फिल्म तक बना दी। वह अलग बात थी कि फिल्म न तो माधुरी के समझ आई, न दर्शकों के और न ही खुद आपके, लेकिन इससे आपको क्या। इस बहाने आपको माधुरी का सान्निध्य तो मिल ही गया। अब माधुरी ने पूरी जिंदगी साथ निभाने का तो ठेका ले नहीं रखा था, एक दिन डॉक्टर नेने आए और उन्हें ले उड़े। ऐसे में कोई और होता तो दिल टूटता लेकिन आपका दिल तो...खुदा खैर करे। कई सालों के घनघोर प्रयासों के बाद आपका दिल फिर धड़का। लेकिन ऐसी हीरोइन के लिए धड़का, जिसने शायद शादी न करने की कसम खा रखी हो। फिर भी आपने अपना काम चलाया। तब्बू को कुछ हुआ हो या नहीं लेकिन आप एक बार फिर प्यार के सागर में डूब गए। और तो कुछ होना नहीं था, बस 'मीनाक्षी के नाम से एक और सदमा देने वाली फिल्म वितरकों के गले पड़ी।

इस बार तो आपकी आशिकमिजाजी की दाद देनी पड़ेगी। इस बार आपने खुद से काफी कम उम्र की हीरोइन अमृता को पकड़कर दूरदर्शिता दिखाई है। कम से कम औरों की तरह उसकी पांच-दस साल में शादी-वादी का तो चक्कर नहीं होगा। अमृता के ह़ुस्न की तारीफ में आपने फरमाया कि वे खुदा की बनाई हुई परफेक्ट पेंटिंग हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेज इस कदर खूबसूरत है कि उसे बस कैनवास पर ही कैप्चर किया जा सकता है। लेकिन दद्दू छोटा मुंह बड़ी बात, जहां तक मुझे ध्यान है, कुछ ऐसी ही बातें आपने माधुरी दीक्षित को देखकर भी कही थीं। यानी आप हर नए हुस्न को देखकर अपनी कला के मापदंडों में फेरबदल करते रहते हैं, मुबारक हो। हालांकि अब लोग आपको कलाकार की जगह हुस्नकार और बुजुर्ग लवर के नाम से जानने लगे हैं। मुमकिन है आपके इस इश्कमिजाजी कॅरियर के लिए आपको लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड भी दे दिया जाए। मगर दद्दू घबराना नहीं, जो है नाम वाला वही तो बदनाम है।